उत्तर प्रदेशप्रयागराज

हाईकोर्ट ने सरकार से पूछा- एक दर्जन अपर महाधिवक्ताओं व डेढ़ दर्जन मुख्य स्थाई अधिवक्ताओं की क्या जरूरत ?

  • अपर महाधिवक्ता व मुख्य स्थाई अधिवक्ता सरकार के मुकदमों में नहीं ले रहे रुचिः हाईकोर्ट
  • हाईकोर्ट ने ली जा रही फीस पर जताई नाराजगी
  • कोर्ट ने कहा, सरकारी वकीलों के काम में बेहतरी के लिए मुख्य सचिव को कैबिनेट के सामने ड्राफ्ट रखने का निर्देश

प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से कहा है कि योग्य अधिवक्ताओं का पैनल बनाये, ताकि प्राधिकरणों, निगमों को अलग से अधिवक्ता न रखना पड़े। कोर्ट ने नाराजगी जताई कि एक दर्जन अपर महाधिवक्ता व डेढ़ दर्जन मुख्य स्थायी अधिवक्ता के अलावा अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं, स्थायी अधिवक्ताओं, अपर शासकीय अधिवक्ताओं व वादधारकों की भारी भरकम टीम है। राज्य विधि अधिकारियों का पैनल है। फिर भी विकास प्राधिकरणों, नगर निगमों व अन्य कारपोरेशन को अलग से अधिवक्ता रखने पड़ रहे हैं।

कोर्ट ने कहा कि कुछ अपर महाधिवक्ता व मुख्य स्थायी अधिवक्ता सरकार के साथ-साथ प्राधिकरणों, निगमों की तरफ से बहस कर दोनों पक्षों से फीस ले रहे हैं। और सरकार के महत्वपूर्ण मामलों में सरकार की तरफ से कोई नहीं खड़ा होता। कोर्ट ने कहा कि एक वकील दोहरी फीस कैसे ले सकता है। जिस सरकारी वकील ने दोहरी फीस ली है, उससे वसूली की जानी चाहिए। आखिर पैसा टैक्स पेयर का ही खर्च होता है। ऐसा करना वकालत के लिए कदाचार है।

कोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि सरकारी वकीलों की कार्यप्रणाली में बेहतरी के लिए ड्राफ्ट तैयार कर उचित कार्रवाई के लिए कैबिनेट में पेश करें। मुख्य सचिव से कहा कि वह कैबिनेट के संज्ञान में लायें कि एक दर्जन अपर महाधिवक्ता व डेढ़ दर्जन मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं की जरूरत ही क्या है। जबकि भारी संख्या में सरकार का बचाव करने के लिए राज्य विधि अधिकारियों की भारी टीम मौजूद हैं।

कोर्ट ने मुख्य सचिव को दो माह में महानिबंधक को प्रगति रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया है। यह आदेश न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने ईशान इंटरनेशनल एजुकेशनल सोसायटी के निदेशक की तरफ से दाखिल अवमानना याचिका पर दिया है। हालांकि कोर्ट ने आदेश का अनुपालन किये जाने के कारण अवमानना याचिका अर्थहीन मानते हुए खारिज कर दी है।

याचिका प्रमुख सचिव मुकुल सिंहल व गाजियाबाद विकास प्राधिकरण सहित कई अधिकारियों के खिलाफ दाखिल की गई थी। कोर्ट ने मार्केट दर से भूमि अधिग्रहण मुआवजे का अवार्ड घोषित करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमे बाजी में उलझे होने के कारण आदेश पालन में देरी की गई। किंतु कोर्ट ने कहा आदेश की अवहेलना की मंशा को देखते हुए कार्रवाई की जाती है। इस मामले में जानबूझकर कर अवमानना का केस नहीं पाया गया।

कोर्ट ने विशेष सचिव द्वारा दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं को विधिक अधिकार न होने के बावजूद अवमानना केस की नोटिस लेने का अधिकार देने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि विशेष सचिव ने 21 फरवरी 22 के पत्र से अपर महाधिवक्ता एम.सी. चतुर्वेदी व कुलदीप पति त्रिपाठी क्रमशः प्रयागराज व लखनऊ को अवमानना मामले की नोटिस लेने के लिए अधिकृत किया और राज्य विधि अधिकारियों से सहयोग लेने की छूट दी।

कोर्ट ने कहा अवमानना नोटिस सीधे अवमानना करने वाले को कोर्ट जारी करती है। कोई उपबंध नहीं है कि सरकारी वकील को नोटिस दी जाये और वह आवंटित करें। कोर्ट ने कहा कि मुख्य स्थायी अधिवक्ता का कार्यालय है। उसे सिविल केसों की नोटिस लेने का अधिकार है। शासकीय अधिवक्ता कार्यालय को आपराधिक केस की नोटिस लेने का अधिकार है। कोई भी वरिष्ठ अधिवक्ता नोटिस नहीं ले सकता। राज्य विधि अधिकारी को नोटिस लेने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार मुख्य स्थायी अधिवक्ता व शासकीय अधिवक्ता कार्यालय को ही है। इस मामले को कोर्ट ने मुख्य सचिव को कैबिनेट के समक्ष उचित कार्रवाई के लिए रखने का निर्देश दिया है।

मालूम हो कि केस की सुनवाई पूरी हुई। इसी बीच राज्य सरकार की तरफ से पक्ष रख रहे अपर महाधिवक्ता ने कोर्ट से प्राधिकरण की तरफ से अपनी उपस्थिति दर्ज करने का अनुरोध किया। प्राधिकरण की तरफ से बहस करने वाले दूसरे वरिष्ठ अधिवक्ता रवि कांत ने आपत्ति की और कहा कि सरकार की तरफ से उपस्थित वकील को उसी समय प्राधिकरण की तरफ से उपस्थित होने का अधिकार नहीं है। कोर्ट को बताया गया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में लखनऊ सहित एक दर्जन अपर महाधिवक्ता, डेढ़ दर्जन मुख्य स्थायी अधिवक्ता, दर्जनों अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता, स्थायी अधिवक्ता व वादधारक आबद्ध है।

कोर्ट ने कहा कि अक्सर देखा जाता है कि अपर महाधिवक्ता व मुख्य स्थायी अधिवक्ता राज्य सरकार के साथ साथ प्राधिकरणों, निगमों की तरफ से उपस्थित होते हैं। कानूनन कोई रोक नहीं है। किंतु दोनों जगह से फीस बिल ले रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि महत्वपूर्ण मामलों में सरकार की तरफ से कोई नहीं आता। इनकी रूचि प्राधिकरण निगम की तरफ से बहस करने में रहती है। जबकि राज्य की तरफ से सहयोग की अपेक्षा रहती है।

कोर्ट ने कहा कि यदि प्राधिकरण निगम की तरफ से उपस्थित होना है तो भारी भरकम पैनल की जरूरत ही क्या है। सरकार पर आर्थिक बोझ ही बढ़ता है। सरकारी वकीलों को टैक्स पेयर का पैसा ही दिया जाता है। कोर्ट ने कहा कि सरकारी संस्थाएं आउटसोर्सिंग से वकील भी रखती हैं। उन पर भी सरकार का भारी धन खर्च होता है। कोर्ट ने उम्मीद जताई है कि सरकार संतुलन बनाकर रखेगी और योग्य अधिवक्ताओं का पैनल रखेगी ताकि संस्थाओं को सरकारी वकील के अलावा आउटसोर्सिंग से वकील न रखना पड़े। प्राधिकरणों व नगर निगमों द्वारा पैनल वकील बनाकर बाहरी वकील रखना बताता है कि सरकारी वकीलों में योग्य वकीलों की कमी है।

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