
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भरण- पोषण से संबंधित एक मामले में परिवार न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा न्यायिक विवेक का उपयोग न करने पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने भरण-पोषण के मामले में न्यायिक अधिकारी की पत्नी के प्रति निष्पक्ष व्यवहार नहीं किया। वे कानून को बनाए रखने तथा पत्नी को भरण-पोषण देने के संबंध में संवैधानिक न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने में विफल रहे।
कोर्ट ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि परिवार न्यायालय के न्यायाधीश को उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायिक सेवा अधिकारियों के वेतन ढांचे की जानकारी नहीं थी और उन्होंने विपक्षी/पति के वेतन को जिला न्यायाधीश के कैडर में प्रवेश स्तर के न्यायिक अधिकारी के वेतन के बराबर मान लिया। परिवार न्यायालय, सोनभद्र के पीठासीन अधिकारी को विपक्षी के मूल वेतन और पद की जानकारी न होने पर कोर्ट ने उन्हें अपने कार्यों पर आत्मनिरीक्षण और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा।
उक्त आदेश न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकलपीठ ने न्यायिक अधिकारी की पत्नी द्वारा दाखिल पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए पारित किया। याचिका में सोनभद्र के परिवार न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश द्वारा महिला को दी गई भरण-पोषण राशि में वृद्धि करने की मांग की गई थी। मामले के अनुसार याची और न्यायिक अधिकारी का विवाह 4 मई 2002 को मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार हुआ। शादी के समय विपक्षी/पति सोनभद्र के जिला न्यायालय में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के पद पर कार्यरत थे और वर्तमान में एटा में विशेष न्यायाधीश के पद पर कार्यरत हैं। याची ने दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न और क्रूरता का आरोप लगाते हुए परिवार न्यायालय के समक्ष भरण-पोषण हेतु आवेदन दाखिल किया, जिसे स्वीकार करते हुए परिवार न्यायालय ने वर्ष 2023 में उसे 20 हजार रुपए भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया, लेकिन पति द्वारा उक्त आदेश का पालन नहीं किया गया। याची ने उसे दिए जाने वाले भरण-पोषण भत्ते में वृद्धि की मांग करते हुए वर्ष 2024 में हाई कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दाखिल कर तर्क दिया कि परिवार न्यायालय उसके पति की वास्तविक आय और स्थिति पर विचार करने में विफल रहा है। कोर्ट ने मामले पर विचार करते हुए पाया कि विपक्षी ने विभिन्न कानूनी दांवपेचों के माध्यम से मामले को लंबा खींचने का प्रयास किया है।
वह साधन या संसाधनों से रहित कोई साधारण व्यक्ति नहीं है बल्कि एक शिक्षित कानूनी पेशेवर है, जिसे न्याय देने में व्यापक अनुभव है। न्यायाधीश केवल कानून के निर्णायक नहीं हैं। वे कानूनी प्रणाली की विश्वसनीयता के प्रतीक हैं। उनसे जवाबदेही के उच्चतम मानदंड अपेक्षित हैं तथा उनकी पेशेवर ईमानदारी उनके व्यक्तिगत आचरण में प्रतिबिंबित होनी चाहिए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एक आम जनमानस की तरह न्यायाधीश भी नागरिकों को दिए जाने वाले अधिकारों के हकदार हैं, लेकिन उन्हें अपने दर्जे और सम्मान के प्रति भी सचेत रहना चाहिए, लेकिन वर्तमान मामले में विपक्षी अपने दर्जे से संबंधित सभी अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा है, जिससे न्याय के सिद्धांतों और मूल्यों का हनन हुआ, जिनकी रक्षा का दायित्व बतौर न्यायाधीश विपक्षी पर था। अंत में कोर्ट ने विपक्षी (पति) को निर्देश दिया कि वह बकाया राशि का भुगतान करें और पत्नी को 50 हजार रुपए का मुकदमा खर्च भी अदा करें। इसके अलावा पत्नी द्वारा प्रथम भरण- पोषण आवेदन दाखिल करने की तिथि से लेकर 16 अगस्त 2019 तक 20 हजार रुपए प्रतिमाह का भुगतान करें और 17 अगस्त 2019 के बाद से 30 हजार रुपए प्रतिमाह का भुगतान करें।