ओपिनियन

राजभवन बनाम लोकभवन की संस्कृति

मृत्युंजय दीक्षित


केंद्र सरकार ने भारत के सभी राजभवनों को लोकभवन कहे जाने का निर्णय लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई अवसरों पर गुलामी के प्रतीकों को समाप्त करने का संदेश दे चुके हैं, स्वाभाविक है इससे गहन रूप से घर कर गई वैचारिक गुलामी की मानसिकता भी धीरे- धीरे समाप्त हो जाएगी। श्रीराम जन्मभूमि पर नव निर्मित दिव्य – भव्य मंदिर के ध्वजारोहण कार्यक्रम में भी प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आगामी 10वर्षों तक गुलामी की मानसिकता को समाप्त रकने के लिए व्यापक अभियान चलाया जाएगा। इसी श्रृंखला में देश में शासन के प्रतीकों में शांत कितु गहन व व्यापक प्रभाव डालने वाले परिवर्तन किए जा रहे हैं । सनातन हिंदू सभ्यता में नामों का विशेष महत्व है । माना जाता है कि व्यक्ति का जैसा नाम होगा उसका प्रभाव व व्यक्तित्व भी उसी प्रकार होगा। उपनिवेशकालीन शाही ठिकानों की छवि लिए राजभवनों को अब लोकभवन नाम दिया गया है। राजभवन का नामकरण लोकभवन करने का तात्पर्य है उसे लोकहितकारी बनाना। इस परिवर्तन का उद्देश्य यह भी है कि इन भवनों में निवास करने वालों को स्मरण रहे कि उनका काम शक्ति प्रदर्शन नहीं अपितु जनसेवा है।

मोदी सरकार ने इसके पूर्व भी कई स्थानों के नाम बदले हैं जैसे राजपथ अब कर्तव्यपथ है। राजपथ का अर्थ है “राजा का मार्ग” जो शक्ति का प्रतीक है, वहीं कर्तव्य पथ, कर्तव्य का स्मरण कराता है। वर्ष 2016 में रेस कोर्स का नाम परिवर्तित करके इसको लोक कल्याण मार्ग किया गया। अब प्रधानमंत्री कार्यालय के नए परिसर को सेवातीर्थ नाम दिया गया है । यह नाम बताता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय सेवा और समर्पण की भावना का केंद्र है न कि मात्र प्रशासनिक केंद्र। इसी प्रकार केंद्रीय सचिवालय का नाम भी बदला गया है और उसे अब कर्तव्य भवन कहा जाता है।

नाम परिवर्तन का उददेश्य है विचारों में परिवर्तन लाना। सभी सरकारी संस्थाएं अब सेवा और कर्तव्य की भाषा बोल रही हैं। गुजरात लोकभवन ने सोशल मीडिया में अपने चित्र साझा करते हुए लिखा है, “ यह परिवर्तन केवल नाम का नहीं अपितु जनसेवा की भावना को और गहराई से आत्मसात करने का संकल्प है।“ अब यह भवन केवल राज्यपाल का निवास नहीं नागरिकों, विद्यार्थियों , किसानों, शोधकर्ताओं तथा सामाजिक संगठनों का भवन है।

कई राज्यों के राज्यपालों ने राजभवन का नामकरण लोकभवन करने की जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से नागरिकों को दी है। एक समय था जब राजभवनों का उपयोग केंद्र सरकार द्वारा राज्यों की सत्ता में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए किया जाता था। नेहरू काल से लेकर वर्ष 2014 के पूर्व तक 94 बार राज्यपालों की शक्तियों का दुररुपयोग करके राज्य सरकारें गिराई गयीं और राष्ट्रपति शासन लगाया गया। 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे के पतन के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के साथ साथ अन्य सभी भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को तत्काल प्रभाव से गिराकर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। तमिलनाडु में आज जो द्रमुक सरकार कांग्रेस के साथ सत्ता का सुख भोग रही है, कांग्रेस पार्टी पूर्व में उनकी सरकारों को भी गिरा चुकी है। कांग्रेस के एक राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी राजभवन में अशोभनीय स्थिति में रहने के कारण वहां से बेदखल किए गए थे।

यद्यपि अब समय बदल रहा है, राजभवन लोक भवन बन रहे हैं तथापि पंजाब, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में घोर भाजपा विरोधी सरकारें हैं जिनका अपने राज्यपालों के साथ विवाद चलता रहता है ।अभी हाल ही में इन राज्यों में राज्यपालों के साथ लंबित विधेयकों का प्रकरण उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गया था।

वर्ष 2014 के पूर्व तक राजभवनों मे निवास करने वाले राज्यपाल की पहुंच जनता तक नहीं होती थी किंतु अब यह संभव हो गया है। बंगाल के हालात बहुत दयनीय हैं और कई बार वहां राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की गई हैं, केरल और तमिलनाडु की स्थिति भी अच्छी नहीं है किंतु राज्यपालों ने अत्यंत संयमित रूप से कार्य किया है। राज्यपालों ने जनता के मध्य जाकर परिस्थितियों पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। बंगाल के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ हों या फिर वर्तमान राज्यपाल सी.वी. बोस दोनों ही आवश्यकता के समय नागरिकों के बीच पहुंचे हैं । उतर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल की सक्रियता भी अद्भुत है राज्य सरकार और केंद्र सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ाने का कोई भी अवसर उनसे नहीं चूकता। “नाम में क्या रखा है”, कहने वाले लोग इस प्रयास का उपहास कर सकते हैं, राजभवन बनाम लोकभवन पर व्यापक वाद विवाद भी संभव हो सकता है किंतु जो परिवर्तन लोकभवन बने राजभवन में दिख रहा है उसकी प्रशंसा तो करनी ही होगी।

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